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उत्तर - परिचय
मानव विकास का तात्पर्य विकास, परिपक्वता और परिवर्तन की उस जटिल प्रक्रिया से है जिससे व्यक्ति अपने पूरे जीवनकाल में गुजरते हैं। मानव विकास के चरणों को समझने से हमें उन शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक और सामाजिक परिवर्तनों के बारे में जानकारी प्राप्त करने की अनुमति मिलती है जो व्यक्ति शैशवावस्था से वयस्कता की ओर बढ़ने पर अनुभव करते हैं। इन आयामों को पहचानकर हम मनुष्य की जटिल और गतिशील प्रकृति और उसके विकास को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।
मानव विकास की अवस्थाएं (स्तर)
मनुष्य के विकास को समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने जीवनचक्र को निम्न अवस्थाओं में विभाजित किया हैं-
गर्भावस्था/ भ्रूणावस्था (जन्म से पूर्व अवस्था)
गर्भधारण से लेकर शिशु के जन्म तक के काल को गर्भावस्था या भ्रूणावस्था कहा जाता है। गर्भावस्था वह अवधि है जिसके दौरान एक महिला के गर्भाशय के अंदर भ्रूण विकसित होता है। औसतन, गर्भावस्था लगभग 40 सप्ताह या लगभग 9 महीने तक चलती है। गर्भावस्था को आम तौर पर महीनों के बजाय हफ्तों में मापा जाता है। मां का स्वास्थ्य भ्रूण के स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। भ्रूण का स्वास्थ्य और विकास माता के स्वास्थ्य, जीवनशैली व खान-पान पर निर्भर करता हैं।
शैशवावस्था
शैशवावस्था को जन्म से लेकर 18 महीनों की आयु के अंतर्गत सूचीबद्ध किया जाता है। बालक की इस अवस्था को “बालक का निर्माण काल” माना जाता है। शैशवावस्था के दौरान, बच्चे कई विकासात्मक मील के पत्थर से गुजरते हैं और नए कौशल हासिल करते हैं। ये मील के पत्थर हर बच्चे में थोड़े भिन्न हो सकते हैं। शिशु धीरे-धीरे अपनी मांसपेशियों पर नियंत्रण हासिल कर लेते हैं और करवट लेना, बैठना, रेंगना और अंततः चलना सीख जाते हैं। इस समय में बच्चे का सामाजिक, भावनात्मक, संज्ञानात्मक और भाषा विकास होता है।
बाल्यावस्था
किशोरावस्था
पारंपरिक रूप से 13 से 19 वर्ष के मध्य की अवधि को किशोरावस्था की अवधि माना जाता था किन्तु बदलते समय तथा किशोरों पर हुए अनेक अध्ययनों के आधार पर हरलॉक ने किशोरावस्था को तीन भागों में विभाजित किया है-
प्रौढ़ावस्था
1. प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था (Early Adulthood): यह अवस्था, किशोरावस्था के बाद की अगली अवस्था हैं। प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था 20 से 40 वर्ष तक की आयु को माना जाता है। इस अवस्था के व्यक्ति से कई प्रकार की अपेक्षाएँ की जाती हैं। जैसे कि-
(a) कोई व्यवसाय चुनकर आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनना।
(b) विवाह करके अपने परिवार की शुरुआत करना।
(c) एक अच्छा नागरिक बनकर समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना।
इस अवस्था में व्यक्ति अपनी जीवन की आवश्यकताओं एवं इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वयं कार्यरत हो जाता है। वह समाज में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए विभिन्न सामाजिक कार्यों में भाग लेना शुरू कर देता है। इस समय वह ऐसे मित्र चुनता है जो हमउम्र होने की अपेक्षा समान विचार, रुचियों तथा व्यवसाय से संबंधित होते हैं। धीरे-धीरे व्यक्ति अपने उत्तरदायित्वों को समझते हुए उन्हें सही ढंग से पूरा करने के लिए प्रयास करता हैं। इन्हीं कारणों से प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था को 'स्थापितता की आयु' (Settling down Age) भी कहा जाता हैं। प्रारंभिक प्रौढ़ावस्था में किसी वयस्क के निम्न उत्तरदायित्व माने जाते है-
2. मध्य प्रौढ़ावस्था (Middle Adulthood/ Middle Age): मध्य प्रौढ़ावस्था 40 से 59 वर्ष तक की आयु को माना जाता है। इस अवस्था को मध्यावस्था भी कहा जाता है। यह वह अवस्था होती है जब पारिवारिक उत्तरदायित्व के कारण व्यक्ति अपने व्यवसाय में तथा परिवार के लालन-पालन में व्यस्त रहता है। अधिकतर व्यक्ति लगभग इसी अवस्था में अपने व्यवसाय की ऊँचाइयों को छूते है। सरल शब्दों में कहें तो यह जीवन की सफलताओं तथा असफलताओं के आकलन की अवस्था है। इसी अवस्था में वयस्कों में विभिन्न मानसिक व शारीरिक परिवर्तन आने आरंभ हो जाते हैं। इस अवस्था के अंत तक उन्हें वृद्धावस्था के आने का आभास होने लगता है तथा वे अपने उत्तरदायित्वों जैसे- बच्चों की शिक्षा, विवाह, ऋण उतारने तथा वृद्धावस्था के लिए धन एकत्रित करने के बारे में गम्भीरता से विचार करने लगते हैं।
वृद्धावस्था
वृद्धावस्था बहुत से सामाजिक परिवेशों में अपने दायित्वों के निर्वाह से मुक्ति तथा जीवन के अन्तिम पड़ाव के करीब पहुँचने का सूचक है। वृद्धावस्था में शरीर की अन्तःक्रियाएं शिथिल होने के फलस्वरूप वृद्ध व्यक्ति अपेक्षाकृत शीघ्र रोगग्रस्त हो जाते हैं तथा कई शारीरिक व मानसिक विकारों से जूझते हैं। कई शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन वृद्धावस्था के सूचक माने जा सकते हैं। जैसे कि- लोग जब दादा-दादी अथवा नाना-नानी बनते हैं तो वे वृद्ध समझे जाते हैं या फिर अपने कार्यस्थल से सेवा निवृत्त (Retired) व्यक्ति वृद्ध समझे जाते हैं। बहुत से देशों में 60-65 वर्ष की आयु वृद्धावस्था की आयु मानी जाती है।
मानव विकास के विभिन्न आयाम/विशेषताएं:
1. शारीरिक विकास : “शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- हड्डियों, माँसपेशियों आदि के बढ़ने को शारीरिक विकास कहते हैं।" शारीरिक विकास किसी भी बालक का बाह्य परिवर्तन होता है और परिवर्तन बाहर से स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। शारीरिक विकास के अंतर्गत मात्रात्मक परिवर्तन होता हैं।
2. क्रियात्मक विकास : माँसपेशियों तथा नाड़ियों की परिपक्वता के अनुरूप शिशु द्वारा विभिन्न कार्य करने की क्षमता अर्जित करने को क्रियात्मक विकास कहते हैं। इसके अंतर्गत बालक शारीरिक गतिविधियों, क्रियाओं तथा तंत्रिकाओ की गतिविधियों में नियंत्रण व संयोजन बनाना सिख जाता हैं जैसे कि पेट के बल लेटना, बैठना, चलना इत्यादि।
3. भाषा का विकास : साधारण रूप से अर्थपूर्ण ध्वनियों और वाक्यों का उचित संयोजन ही भाषागत विकास कहलाता है। बच्चा अपने परिवार और समाज में रहकर भाषा को स्वभाविक रूप से ग्रहण करता है व भाषा के श्रवण और मौखिक कौशलों का विकास करता है। इसके अंतर्गत बच्चा पहले रोना एवं चिल्लाना, बलबलाना, हाव-भाव व बाद में वाक्यों का निर्माण सिख जाता हैं।
4. संवेगात्मक विकास : अपनी सुखद या दुखद भावनाओं पर नियंत्रण रखते हुए उन्हें समाज द्वारा वांछित तथा अनुमोदित ढंग से अभिव्यक्त (Express) करना संवेगात्मक विकास कहलाता है। इस समय में व्यक्ति संवेगों पर नियंत्रण करना व उन्हें प्रकट करने की योग्यता सीख जाता है।
5. सामाजिक विकास : वह प्रक्रिया जिसके द्वारा शिशु समाज के नियमों व सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार अपने व्यवहार को ढालने की चेष्टा करता है, सामाजिक विकास कहलाता है। सामाजिक विकास में व्यक्ति समाज में मान्य व स्वीकार्य तौर-तरीके के अनुसार व्यवहार करना तथा दूसरों के साथ मिल-जुलकर रहना सीखता है। प्रत्येक सामाजिक समूह के अपने नियम-कानून होते हैं, जिन्हें समाज के सभी सदस्यों के लिए मानना अनिवार्य होता है। समाज का कोई भी व्यक्ति जो इन नियमों का पालन नहीं करता उसे असामाजिक करार दिया जाता है।
6. संज्ञानात्मक विकास : शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक की मानसिक प्रक्रिया के विकास को संज्ञानात्मक विकास या ज्ञानात्मक विकास कहते हैं। यह किसी समस्या को सोचने, समझने व समस्याओं का समाधान निकालने की क्षमता का विकास है। ये सभी आयाम एक-दूसरे में व्याप्त हैं तथा एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
निष्कर्ष
मानव विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक निरंतर चलती रहती है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति बहुत सी योग्यताओ और कौशलों को अर्जित करता हैं। मानव विकास जिसमें विभिन्न आयाम और विशेषताएं शामिल है जैसे शारीरिक, संज्ञानात्मक, भावनात्मक, सामाजिक, इन आयामों को समझने से हमें मानव विकास के विविध चरणों और पहलुओं को समझने में मदद मिलती है और व्यक्तिगत मतभेदों और व्यक्तिगत विकास और कल्याण की क्षमता में मूल्यवान अंतर्दृष्टि मिलती है।
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