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उत्तर - परिचय
हिंदी भाषा का उद्भव प्राचीन भारतीय भाषाओं से हुआ है। इसकी शुरुआत संस्कृत से हुई, जो समय के साथ विभिन्न बोलियों में बदल गई। आदिकाल में हिंदी की बोलियों का विकास हुआ, जिनमें प्राकृत और अपभ्रंश प्रमुख हैं। मध्यकाल में हिंदी की बोलियाँ जैसे अवधी, ब्रज और भोजपुरी ने आकार लिया, और आधुनिक काल में हिंदी एक प्रमुख भाषा के रूप में स्थापित हुई।
हिंदी भाषा का उद्भव
वैदिक संस्कृत काल में आर्य भाषा की तीन स्थानीय बोलियाँ थीं। पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती और पूर्वी। पालि काल में एक और स्थानीय बोली दक्षिणी का विकास हुआ। लेकिन प्राकृत काल में यह संख्या बढ़कर छः-सात हो गई। जिनके नाम है- ब्राचड, केकय, टक्क, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, मागधी। इन्हीं से अपभ्रंश काल में अपभ्रंश स्थानीय बोलियाँ विकसित हुईं, अपभ्रंश बोलियों से आधुनिक भाषाएँ बनीं जैसे- ब्राचड से सिंधी, केकय से लहंदा, टक्क से पंजाबी, महाराष्ट्री से मराठी, शौरसेनी से गुजराती, राजस्थानी, पश्चिमी हिंदी आदि।
विकास अथवा इतिहास -
हिंदी भाषा का जन्म लगभग 1000 ई. में हुआ और अब यह लगभग 1000 वर्षों की हो गई है। इसके इतिहास या विकास को तीन कालों में बाँटा गया है:- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।
1. आदिकाल (1000 ई. से 1500 ई.) - हिंदी भाषा अपने आदिकाल में सभी बातों में अपभ्रंश के बहुत अधिक निकट थी, क्योंकि उसी से हिंदी का उद्भव हुआ था। आदिकाल की हिंदी की मुख्य विशेषताएँ है-
(क) ध्वनि- आदिकाल की हिंदी में मुख्यतः उन्हीं ध्वनियों (स्वर-व्यंजनों) का प्रयोग मिलता है, जो अपभ्रंश में प्रयुक्त होती थीं। मुख्य अंतर निम्न हैं।
(i) अपभ्रंश में केवल आठ स्वर थे- अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ। ये आठों ही स्वर मूल थे। आदिकालीन हिंदी में दो नए स्वर ऐ, औ विकसित हो गए, जो संयुक्त स्वर थे तथा जिनका उच्चारण क्रमशः अऍ, अओ जैसा था।
(ii) च, छ, ज, झ, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में स्पर्श व्यंजन थे, किंतु आदिकालीन हिंदी में ये स्पर्श-संघर्षी हो गए और तब से अब तक स्पर्श-संघर्षी ही हैं।
(iii) न, र, ल, स, संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश में दंत्य ध्वनियाँ थीं। आदिकाल में ये वत्स्य हो गईं।
(iv) अपभ्रंश में ड़, ढ़, व्यंजन नहीं थे। आदिकाल की हिंदी में इनका विकास हुआ।
(v) न्ह, म्ह, ल्ह पहले संयुक्त व्यंजन थे, अब वे क्रमशः न, म, ल के महाप्राण रूप हो गए अर्थात् संयुक्त न रहकर मूल व्यंजन हो गए।
(ख) व्याकरण - आदिकाल में हिंदी का व्याकरण अपभ्रंश के बहुत करीब था। लेकिन समय के साथ, अपभ्रंश के व्याकरणिक रूप कम होते गए और हिंदी ने अपने खुद के रूप विकसित कर लिए। 1500 ई. तक आते आते हिंदी ने अपनी पहचान बना ली और अपभ्रंश के रूप लगभग पूरी तरह से समाप्त हो गया।
(ग) शब्द-भंडार - आदिकालीन हिंदी का शब्द-भंडार अपने प्रारंभिक चरण में अपभ्रंश का ही था किंतु धीरे-धीरे कुछ परिवर्तन आते गए। भक्ति-आंदोलन के शुरू होने से आदिकालीन हिंदी में तत्सम शब्दावली की संख्या बढ़ गई, इसके अलावा मुसलमानों के आगमन से हिंदी में फारसी, अरबी, तुर्की शब्द आए। जैसे 'गोरखबानी' में अकलि, नूर और काजी एवं 'पृथ्वीराज रासो' में गाजी, नजर आदि। भक्ति आंदोलन और मुसलमानों के प्रभाव से कुछ पुराने अपभ्रंश शब्द हिंदी भंडार से निकल गए या फिर उनका प्रयोग बहुत कम हो गया।
(घ) साहित्य में प्रयोग - इस काल में साहित्य में प्रमुख डिंगल मैथिली, दक्खिनी, अवधी, ब्रज तथा मिश्रित भाषा का प्रयोग मिलता है। इस काल के प्रमुख हिंदी साहित्यकार गोरखनाथ, विद्यापति, नरपति, नाल्ह, चन्दबरदायी, कबीर तथा शाह मीराजी आदि हैं।
2. मध्यकाल (1500 ई. से 1800 ई. तक) - मध्यकाल के समय हिंदी की प्राकृत बोलियाँ विशेषकर ब्रज, अवधी तथा खड़ी बोली विकसित होकर सामने आती हैं तथा खड़ी बोली गद्य का विकास इसी युग होता है।
(क) ध्वनि - फारसी भाषा के प्रभाव से हिंदी में तुर्की, अरबी और फारसी के शब्द और नए व्यंजन शामिल हो गया है जैसे- क़, ख़, ग़, ज़, फ़। इसके अलावा, कुछ शब्दों के उच्चारण और रूप में भी बदलाव आया है, जैसे ‘राम्’ अब ’राम’ कहा जाने लगा है।
(ख) व्याकरण - मध्यकाल काल में हिंदी का व्याकरण पूरी तरह विकसित हो गया और स्वतंत्र रूप से कार्य करने लगा। अपभ्रंश के ज्यादातर रूप हिंदी से समाप्त हो गया और जो बचे रूप हिंदी के व्याकरण में शामिल हो गया। इसके अलावा परसर्गों और सहायक क्रियाओं का प्रयोग ज्यादा होने लगा। फारसी के प्रभाव से हिंदी वाक्यों की रचना में बदलाव आया। पहले 'कि' का प्रयोग नहीं होता था, लेकिन बाद में फारसी की तरह हिंदी में 'कि' का इस्तेमाल होने लगा।
(ग) शब्द-भंडार - मध्यकाल काल में आते-आते काफी शब्द फारसी, अरबी तथा पश्तो से कई शब्द हिंदी भाषा में शामिल हो गया और इन विदेशी शब्दों की संख्या लगभग 5000 से ऊपर हो गई। फारसी के कुछ मुहावरे और लोकोक्तियाँ भी प्रयोग होने लगा।
(घ) साहित्य में प्रयोग - इस काल में धर्म की प्रधानता के कारण राम-स्थान की भाषा अवधी तथा कृष्ण-स्थान की भाषा ब्रज में भी विशेष रूप से साहित्य लिखा गया। इसके अलावा दक्खिनी, उर्दू, डिंगल, मैथिली और खड़ी बोली में भी साहित्य-रचना हुई। इस काल में प्रमुख साहित्यकार जायसी, सूर, मीरा, तुलसी, केवल, बिहारी, भूषण, देव, बुरहानुद्दीन, नुसरती, कुलीकुतुबशाह, वजही तथा वली आदि हैं।
3. आधुनिककाल (1800 ई. से अब तक) - आधुनिक काल जिसका समय 19वीं सदी से आरंभ होता है जब हिंदी साहित्य में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली का प्रयोग दिखाई देता है। गद्य की सभी विधाओं यथा - निबंध, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि का विकास होता है। हिंदी खड़ी बोली के विकास के आरंभिक चरण में चार महानुभावों - लल्लू जी लाल, सदासुख लाल, सदल मिश्र तथा इंशाअल्ला खाँ का महत्त्वपूर्ण योगदान दिखाई देता है और आगे चलकर हिंदी के दो प्रसिद्ध साहित्यकारों भारतेंदु तथा महावीर प्रसाद द्विवेदी के योगदान से खड़ी बोली एक व्यवस्थित मानक रूप ग्रहण करती है।
(क) ध्वनि - आधुनिक काल में शिक्षा के फैलाव और उर्दू के प्रभाव से क़, ख़, ग़, ज़, फ़ अक्षर शिक्षित लोगों में आम थे। स्वतंत्रता के बाद अंग्रेजी के प्रभाव से ज़ और फ़ अभी भी कुछ हद तक इस्तेमाल होते हैं, लेकिन क, ख, ग का सही प्रयोग कम हो गया है और नई पीढ़ी क़, ख़, ग़ का उपयोग करने लगी है।
(ख) व्याकरण - आदिकाल में हिंदी की अलग-अलग बोलियों का व्याकरणिक विकास शुरू हो गया था, लेकिन उस समय कई व्याकरणिक रूप एक जैसे थे। आधुनिक काल तक, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली जैसी बोलियों का व्याकरण इतना अलग और स्वतंत्र हो गया है कि अब उन्हें आसानी से अलग भाषा के रूप में पहचाना जा सकता है।
(ग) शब्द-भंडार- आधुनिक काल (1800 से अब तक) में हिंदी के शब्द-भंडार को मोटे तौर पर छह-सात हिस्सों में बांटा जा सकता है।
(घ) साहित्य में प्रयोग - आजकल भारतीय राजनीति की भाषा मुख्य रूप से हिंदी है, और यही खड़ी बोली हिंदी हमारी राजभाषा भी है।
निष्कर्ष
हिंदी भाषा का विकास अपभ्रंश से शुरू होकर ब्रज और अवधी जैसी बोलियों की ओर बढ़ा। फारसी और अरबी के प्रभाव से शब्दावली में बदलाव आया, और आधुनिक काल में खड़ी बोली का उदय और अंग्रेजी के प्रभाव से भाषा में नया शब्दावली और व्याकरणिक बदलाव आए। आज हिंदी एक समृद्ध और विविध भाषा है।
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