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उत्तर - परिचय
हिंदी साहित्य सिर्फ भावनाओं और कल्पनाओं को दिखाने का माध्यम नहीं रहा है, बल्कि यह समाज की समस्याओं, अनुभवों और सच्चाइयों को सामने लाने का काम भी करता रहा है। समय के साथ साहित्य ने ऐसे विचारों को जन्म दिया, जो सत्ता और समाज की परंपराओं पर सवाल उठाते हैं और बराबरी की मांग करते हैं। यही सोच साहित्य में विमर्श की शुरुआत करती है, जहाँ हाशिए पर रहने वाले लोगों की बातें केंद्र में लाई जाती हैं और उन्हें भी समाज का जरूरी हिस्सा माना जाता है।
विमर्श का अर्थ
समाज की किसी भी समस्या पर चर्चा-परिचर्चा, संवाद, तर्क-वितर्क करना ही विमर्श कहलाता है। यह चर्चा अकेले भी शुरू हो सकती है, जब कोई व्यक्ति किसी विषय को लेकर एकांत में गहन चिंतन, मनन करके किसी समूह में जाकर उस विषय पर अन्य व्यक्तियों से तर्क-वितर्क या संवाद करता है तो उसे विमर्श कहते हैं। यानी, किसी विषय पर गंभीर सोच और सामूहिक बातचीत ही विमर्श है।
विमर्श की विभिन्न परिभाषाएँ :
डॉ. भोलानाथ के अनुसार - विमर्श का अर्थ "तबादला-ए-खयाल, परामर्श, मशविरा राय, विचार-विनिमय, विचार-विमर्श, सोच-विचार" है।
शब्दकोश में विमर्श का तात्पर्य 'विचार, विवेचन, परीक्षण, समीक्षा, तर्क, ज्ञान' आदि के रूप में अंकित किया गया है।
मानक हिंदी कोश में विमर्श का अर्थ है - 'सोच-विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना, किसी बात या विषय पर कुछ सोचना-समझना, विचार-करना, गुण-दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना, जाँचना और परखना, किसी से परामर्श या सलाह करना आदि।
विमर्श की अवधारणा :
विमर्श उन सामाजिक पक्षों को संदर्भित करता है, जिनमें किसी विशेष-विषय और संदर्भों में विश्लेषण का उपयोग किया जाता है, विशेष रूप से समाज के आंतरिक आयाम और शक्ति संचालन के विषय में है।
हिंदी साहित्य के विभिन्न विमर्शों के स्वरूप:
साहित्य में भी विभिन्न विमर्शों जैसे- स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि से संदर्भित साहित्य पर निरंतर लेखन विमर्शों के महत्त्व को उजागर करता है।
1. दलित विमर्श:
दलित विमर्श का मतलब है - दलित समाज की बातों, समस्याओं और उनके अधिकारों पर चर्चा करना।
मैला ढोने की प्रथा : मैला ढोने की प्रथा भारत में एक सदियों पुरानी कुप्रथा थी, जिसमें निश्चित जातियों के लोगों को सार्वजनिक शौचालयों और नालियों की सफाई का काम सौंपा जाता था। यह काम न केवल अत्यंत गंदा और अपमानजनक था, बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए भी बेहद खतरनाक था।
भीमराव अंबेडकर और मैला ढोने की प्रथा का अंत : भीमराव अंबेडकर को भारत के संविधान का शिल्पकार कहा जाता है, और उन्होंने देश में व्याप्त सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी लगातार लड़ाई लड़ी। मैला ढोने की प्रथा भी उन बुराइयों में से एक थी जिसके खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई।
अंबेडकर की भूमिका :
2. स्त्री विमर्श
स्त्री विमर्श का स्वरूप भारतीय संदर्भ में समय के साथ-साथ विकसित हुआ है जिसमें विभिन्न चरण शामिल हैं-
3. जनजातीय विमर्श और सांस्कृतिक पहचान
भारतीय परिदृश्य में आदिवासी समाज के प्रमुख नेतृत्वकर्ता बिरसा मुंडा जिनका जीवन किसी प्रेरणा स्रोत से कम नहीं है, उनका संपूर्ण जीवन अदम्य साहस, संघर्ष और सामाजिक न्याय के हेतु समर्पित रहा। उन्होंने आदिवासी आंदोलन को एक मजबूत दिशा दी और उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। जिसके कारण आदिवासी लोग अपने हक़ के लिए जागरूक हुए और अब वे बिना डर के अपनी बात कहने लगे हैं।
डिजिटल युग में जनजातीय विमर्श : आज के डिजिटल समय में जनजातीय समाज से जुड़ी बातें और भी तेज़ी से फैलने लगी हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने आदिवासी लोगों को अपनी बात कहने, अपने अनुभव बताने, आंदोलन चलाने और दुनिया से जुड़ने में सक्षम हुए है।
निष्कर्ष
विमर्श समाज में शक्ति, पहचान और अधिकारों से जुड़े मुद्दों को समझने का माध्यम है। दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श समाज के हाशिए पर रहे वर्गों की आवाज़ को सामने लाते हैं। ये विमर्श सामाजिक समानता, न्याय और चेतना को मजबूत करते हैं।
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