प्रश्न 1 - विमर्श का अर्थ और उसकी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हिंदी साहित्य के विभिन्न विमर्शों के स्वरूप को बताइए।

May 17, 2025
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प्रश्न 1 - विमर्श का अर्थ और उसकी अवधारणा को स्पष्ट करते हुए हिंदी साहित्य के विभिन्न विमर्शों के स्वरूप को बताइए।

उत्तर -  परिचय

हिंदी साहित्य सिर्फ भावनाओं और कल्पनाओं को दिखाने का माध्यम नहीं रहा है, बल्कि यह समाज की समस्याओं, अनुभवों और सच्चाइयों को सामने लाने का काम भी करता रहा है। समय के साथ साहित्य ने ऐसे विचारों को जन्म दिया, जो सत्ता और समाज की परंपराओं पर सवाल उठाते हैं और बराबरी की मांग करते हैं। यही सोच साहित्य में विमर्श की शुरुआत करती है, जहाँ हाशिए पर रहने वाले लोगों की बातें केंद्र में लाई जाती हैं और उन्हें भी समाज का जरूरी हिस्सा माना जाता है।

विमर्श का अर्थ

समाज की किसी भी समस्या पर चर्चा-परिचर्चा, संवाद, तर्क-वितर्क करना ही विमर्श कहलाता है।  यह चर्चा अकेले भी शुरू हो सकती है, जब कोई व्यक्ति किसी विषय को लेकर एकांत में गहन चिंतन, मनन करके किसी समूह में जाकर उस विषय पर अन्य व्यक्तियों से तर्क-वितर्क या संवाद करता है तो उसे विमर्श कहते हैं। यानी, किसी विषय पर गंभीर सोच और सामूहिक बातचीत  ही विमर्श है।

 विमर्श की विभिन्न परिभाषाएँ :

डॉ. भोलानाथ के अनुसार - विमर्श का अर्थ "तबादला-ए-खयाल, परामर्श, मशविरा राय, विचार-विनिमय, विचार-विमर्श, सोच-विचार" है।

शब्दकोश में विमर्श का तात्पर्य 'विचार, विवेचन, परीक्षण, समीक्षा, तर्क, ज्ञान' आदि के रूप में अंकित किया गया है।

मानक हिंदी कोश में विमर्श का अर्थ है - 'सोच-विचार कर तथ्य या वास्तविकता का पता लगाना, किसी बात या विषय पर कुछ सोचना-समझना, विचार-करना, गुण-दोष आदि की आलोचना या मीमांसा करना, जाँचना और परखना, किसी से परामर्श या सलाह करना आदि।

 विमर्श की अवधारणा :

विमर्श उन सामाजिक पक्षों को संदर्भित करता है, जिनमें किसी विशेष-विषय और संदर्भों में विश्लेषण का उपयोग किया जाता है, विशेष रूप से समाज के आंतरिक आयाम और शक्ति संचालन के विषय में है।

  • मिशेल फौकॉल्ट का कहना था कि भाषा, ताकत (शक्ति) और लोगों के व्यवहार आपस में जुड़े होते हैं। उन्होंने कहा कि विमर्श वह तरीका है जिससे समाज में ज्ञान बनता है, लोगों के काम करने के तरीके बनते हैं, और किसके पास कितनी ताकत है, यह तय होता है।
  • एंटोनियो ग्राम्शी ने कहा कि समाज का शासक वर्ग अपने फायदे के लिए ऐसे विमर्श तैयार करता है जिससे उसकी सत्ता बनी रहे। यह सांस्कृतिक दबदबे या "आधिपत्य" कहलाता है।

 हिंदी साहित्य के विभिन्न विमर्शों के स्वरूप:

साहित्य में भी विभिन्न विमर्शों जैसे- स्त्री विमर्श, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श आदि से संदर्भित साहित्य पर निरंतर लेखन विमर्शों के महत्त्व को उजागर करता है।

1. दलित विमर्श:

दलित विमर्श का मतलब है - दलित समाज की बातों, समस्याओं और उनके अधिकारों पर चर्चा करना।

मैला ढोने की प्रथा : मैला ढोने की प्रथा भारत में एक सदियों पुरानी कुप्रथा थी, जिसमें निश्चित जातियों के लोगों को सार्वजनिक शौचालयों और नालियों की सफाई का काम सौंपा जाता था। यह काम न केवल अत्यंत गंदा और अपमानजनक था, बल्कि मानव स्वास्थ्य के लिए भी बेहद खतरनाक था।

भीमराव अंबेडकर और मैला ढोने की प्रथा का अंत : भीमराव अंबेडकर को भारत के संविधान का शिल्पकार कहा जाता है, और उन्होंने देश में व्याप्त सामाजिक बुराइयों के खिलाफ भी लगातार लड़ाई लड़ी। मैला ढोने की प्रथा भी उन बुराइयों में से एक थी जिसके खिलाफ उन्होंने आवाज उठाई।

अंबेडकर की भूमिका :

  • जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज : अंबेडकर ने अपने पूरे जीवन में जाति व्यवस्था के खिलाफ आवाज को बुलंद किया। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि सभी मनुष्य समान हैं और किसी के साथ भी जाति के नाम पर भेदभाव नहीं होना चाहिए।
  • दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष : अंबेडकर ने दलितों के अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष किया और उन्हें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के लिए काम किया।
  • शिक्षा का महत्त्व : अंबेडकर ने शिक्षा को दलितों के उत्थान का सबसे महत्त्वपूर्ण हथियार माना और उन्होंने दलितों को शिक्षित करने के लिए कई प्रयास किए।
  • संविधान में समानता : भारत के संविधान में उन्होंने समानता और न्याय को सुनिश्चित करने के लिए कई प्रावधान किए।
  • दलित विमर्श के कुछ महत्वपूर्ण लेखक हैं - डॉ. अंबेडकर, जिनकी आत्मकथाएँ बहुत प्रसिद्ध हैं मोहनदास नेमिशराय और ओमप्रकाश वाल्मीकि, जिन्होंने दलित जीवन की सच्चाई को अपने लेखन में दिखाया है।

2. स्त्री विमर्श

स्त्री विमर्श का स्वरूप भारतीय संदर्भ में समय के साथ-साथ विकसित हुआ है जिसमें विभिन्न चरण शामिल हैं-

  • प्रारंभिक संघर्ष और सुधार : स्त्री विमर्श की शुरुआत 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में हुई। इस अवधि में सामाजिक सुधारकों ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए काम किया। राममोहन राय और ईश्वर चंद्र विद्यासागर जैसे सुधारकों ने विधवा पुनर्विवाह, महिलाओं की शिक्षा, और बाल विवाह जैसे मुद्दों पर काम किया।
  • स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक परिवर्तन :  भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, महिलाओं ने स्वतंत्रता आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज, कस्तूरबा गांधी और सरोजिनी नायडू जैसे नेताओं ने महिलाओं की राजनीतिक सक्रियता और सामाजिक स्थिति को प्रमुखता दी।
  • आधुनिक स्त्री विमर्श : स्वतंत्रता के बाद, भारत में स्त्री विमर्श ने एक नया स्वरूप ग्रहण किया। फेमिनिस्ट आंदोलनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए काम किया और लैंगिक समानता के मुद्दों को प्रमुखता दी। मुक्तावन, उषा मंगेशकर, और नीलम साहनी जैसी लेखिकाओं और समाज सुधारकों ने साहित्य और संस्कृति के माध्यम से महिलाओं के मुद्दों को उजागर किया।
  • वर्तमान परिप्रेक्ष्य : आज के समय में, स्त्री विमर्श ने आंदोलन के रूप में एक व्यापक स्वरूप ग्रहण किया है। जो केवल सामाजिक सुधारों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक अवसरों जैसे विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति को सुधारने का प्रयास करता है। इस विमर्श के माध्यम से, महिलाओं की आवाज़ को प्रमुखता दी गई है और समाज में समानता और सम्मान की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए हैं।

3. जनजातीय विमर्श और सांस्कृतिक पहचान

भारतीय परिदृश्य में आदिवासी समाज के प्रमुख नेतृत्वकर्ता बिरसा मुंडा जिनका जीवन किसी प्रेरणा स्रोत से कम नहीं है, उनका संपूर्ण जीवन अदम्य साहस, संघर्ष और सामाजिक न्याय के हेतु समर्पित रहा। उन्होंने आदिवासी आंदोलन को एक मजबूत दिशा दी और उनके अधिकारों के लिए आवाज़ उठाई। जिसके कारण आदिवासी लोग अपने हक़ के लिए जागरूक हुए और अब वे बिना डर के अपनी बात कहने लगे हैं।

डिजिटल युग में जनजातीय विमर्श : आज के डिजिटल समय में जनजातीय समाज से जुड़ी बातें और भी तेज़ी से फैलने लगी हैं। सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स ने आदिवासी लोगों को अपनी बात कहने, अपने अनुभव बताने, आंदोलन चलाने और दुनिया से जुड़ने में सक्षम हुए है।

  • काउआनुई का कहना है कि सोशल मीडिया से आदिवासी लोगों की आवाज़ को मज़बूती मिलती है और वे संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ सकते हैं।

निष्कर्ष

विमर्श समाज में शक्ति, पहचान और अधिकारों से जुड़े मुद्दों को समझने का माध्यम है। दलित, स्त्री और आदिवासी विमर्श समाज के हाशिए पर रहे वर्गों की आवाज़ को सामने लाते हैं। ये विमर्श सामाजिक समानता, न्याय और चेतना को मजबूत करते हैं।

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