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उत्तर – परिचय
300-1200 ई. के बीच की अवधि के इतिहास को समझने के लिए विभिन्न प्रकार के साक्ष्य बहुत मदद करते हैं। ये साक्ष्य सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन के बारे में जानकारी देते हैं। साक्ष्यों की प्रकृति साहित्य, कला, वास्तुकला और अन्य क्षेत्रों में मानवीय उपलब्धि के स्तर को दर्शाती है। चूँकि इन साक्ष्यों में विभिन्न प्रकार की सीमाएँ होती हैं, इसलिए अतीत के अध्ययन के लिए हमारे पास उपलब्ध सभी अवशेषों और स्त्रोतों से प्राप्त जानकारी को सही सन्दर्भ और परिपेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है।
300 से 1200 ई. के इतिहास के स्रोत:
साहित्यिक स्रोत
भारत के इतिहास के सन्दर्भ में सर्वाधिक स्रोत साहित्यिक स्रोत हैं। प्राचीन काल में पुस्तकें हाथ से लिखी जाती थी, हाथ से लिखी गयी इन पुस्तकों को पांडुलिपि कहा जाता है। पांडुलिपियों को ताड़पत्रों तथा भोजपत्रों पर लिखा जाता था।
1. धार्मिक साहित्य
300 से 1200 ई. में पुराण, महाभारत और रामायण को संकलित किया गया था। पुराण प्राचीन भारतीय ग्रंथों की एक शैली है जिसमें वंशावली, ऐतिहासिक और पौराणिक कथाएँ शामिल हैं। गुप्त काल के दौरान कई पुराणों की रचना या संपादन किया गया, जिनमें विष्णु पुराण, शिव पुराण और भागवत पुराण शामिल हैं। गुप्त काल में मनुस्मृति (मनु के कानून) और याज्ञवल्क्य स्मृति जैसी महत्वपूर्ण स्मृतियों की रचना देखी गई।
2. गैर-धार्मिक साहित्य
गैर–धार्मिक साहित्य धर्म के अलावा अन्य साहित्य को धर्मेत्तर साहित्य कहा जाता है। इसमें ऐतिहासिक पुस्तकें, जीवनी, वृत्तांत इत्यादि शामिल हैं। गैर-धार्मिक साहित्य में विद्वानों व कूटनीतिज्ञों की रचनाएँ प्रमुख है।
बाणभट्ट कृत हर्षचरित : सम्राट हर्ष के दरबारी कवि बाणभट्ट ने हर्ष की यह जीवनी 7वीं शताब्दी में लिखी थी। यद्यपि यह हर्ष के जीवन की घटनाओं का वर्णन करता है, यह गुप्त काल और उस समय की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के बारे में बहुमूल्य ऐतिहासिक जानकारी प्रदान करता है।
वाल्मिकी कृत रामायण : दो महान भारतीय महाकाव्यों में से एक, रामायण गुप्त काल से पहले की है, लेकिन इस दौरान भी प्रसारित और संशोधित होती रही।
व्यास कृत महाभारत : रामायण के समान, महाभारत एक महाकाव्य है जो गुप्त काल से पहले अस्तित्व में था लेकिन उस समय के दौरान प्रभावशाली रहा। इसमें विभिन्न राज्यों, राजवंशों और सामाजिक संरचनाओं का विस्तृत विवरण शामिल है।
3. विदेशी साहित्य
चीनी बौद्ध तीर्थयात्री, जैसे फैक्सियन, जुआनज़ांग और यिजिंग, ने गुप्त काल के दौरान भारत का दौरा किया। उन्होंने उस समय के सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहलुओं में मूल्यवान अंतर्दृष्टि (किसी स्थिति को देखने या समझने की शक्ति या कार्य) प्रदान करते हुए, अपनी टिप्पणियों और अनुभवों का दस्तावेजीकरण किया। उनके लेखन गुप्त साम्राज्य, उसके प्रशासन, समाज और धर्म के बारे में विवरण प्रदान करते हैं।
मेगस्थनीज, प्लिनी द एल्डर और टॉलेमी जैसे लेखकों की रचनाओं में प्राचीन भारतीय साम्राज्यों, व्यापार मार्गों और सांस्कृतिक प्रथाओं के बारे में जानकारी मिलती है।
चीनी यात्री ह्वेन-त्सांग ने हर्ष के शासनकाल के दौरान भारत का दौरा किया। उन्होंने भारत में तेरह वर्ष बिताए, जिनमें से आठ वर्ष वे हर्ष के राज्य में रहे। उन्होंने विभिन्न भारतीय राज्यों का दौरा किया और उनकी स्थिति के बारे में बताया। उनकी पुस्तक "सी-यू-की" प्राचीन भारतीय इतिहास का एक अनमोल स्रोत है।
पुरातात्विक स्रोत
पुरातात्विक स्रोत का सम्बन्ध प्राचीन अभिलेखों, सिक्कों, स्मारकों, भवनों, मूर्तियों तथा चित्रकला से है, यह साधन काफी विश्वसनीय हैं। इन स्त्रोतों की सहायता से प्राचीन काल की विभिन्न मानवीय गतिविधियों की काफी सटीक जानकारी मिलती है। इन स्त्रोतों से किसी समय विशेष में मौजूद लोगों के रहन-सहन, कला, जीवन शैली व अर्थव्यवस्था इत्यादि का ज्ञान होता है। इनमे से अधिकतर स्त्रोतों का वैज्ञानिक सत्यापन किया जा सकता है। इस प्रकार के प्राचीन स्त्रोतों का अध्ययन करने वाले अन्वेषकों (खोजनेवाला) को पुरातत्वविद कहा जाता है।
1. अभिलेख
भारतीय इतिहास के सम्बन्ध में अभिलेखों का स्थान अति महत्वपूर्ण है, भारतीय इतिहास के बारे में प्राचीन काल के कई शासकों के अभिलेखों से काफी महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त हुई है। यह अभिलेख पत्थर, स्तम्भ, धातु की पट्टी तथा मिट्टी की वस्तुओं पर उकेरे हुए प्राप्त हुए हैं।
2. सिक्के
प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के लिए सिक्के व मुद्राएं भी महत्त्वपूर्ण पुरातात्विक स्रोत हैं। प्राचीन काल में सिक्के मुख्यत: सोने, चांदी, तांबे, पीतल व कांसे आदि से निर्मित किए जाते थे। प्राचीनकालीन सिक्कों पर लेख के बजाएं केवल चिह्न पाए गए हैं, जिनमें राजाओं के नाम, उनकी उपाधियां, चित्र, तिथियों आदि का वर्णन मिलता है। प्राचीनकाल में सिक्कों व मुद्राओं पर विभिन्न शासकों की वंशावली, शासन-प्रबंधन तथा राजनैतिक व धार्मिक विचारों को जानने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
3. अन्य पुरातात्त्विक अवशेष
300 से 1200 ई. के बीच कई वास्तुशिल्प और मूर्तिकला के अवशेष पाए गए हैं, जिनमें से अधिकांश धार्मिक प्रकृति के हैं। पुराना किला, अहिच्छत्र, बसाद, भीता, अरिकामेडु और कावेरीपट्टिनम जैसे स्थलों पर खुदाई से महत्त्वपूर्ण पुरातात्त्विक अवशेष प्राप्त हुए हैं। गुप्त काल के शहरों से संबंधित पुरातात्त्विक साक्ष्य बहुत कम हैं।
सीमाएं
प्राचीन भारत में गुप्त काल में सीमित लिखित अभिलेख थे, जिससे इतिहासकारों के लिए इस अवधि के बारे में व्यापक और विस्तृत जानकारी प्राप्त करना मुश्किल हो गया था। समय बीतने और विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं के कारण, गुप्त काल के कई प्राथमिक स्रोत खो गए या नष्ट हो गए, जिससे इतिहासकारों के पास अधूरी या खंडित जानकारी रह गई। भाषाई परिवर्तन, लिपि विविधता और संस्कृत, प्राकृत और ब्राह्मी लिपि जैसी प्राचीन भाषाओं में विशेषज्ञता की आवश्यकता के कारण गुप्त काल के ऐतिहासिक स्रोतों को समझना और व्याख्या करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इतिहास का निर्माण पुरातात्विक साक्ष्यों एवं साहित्यिक साक्ष्यों के विवरणों की संपुष्टि के बाद ही किया जाता है। पुरातात्विक साक्ष्यों एवं साहित्यिक साक्ष्यों के बीच जितनी साम्यता होगी उतना ही सटीक इतिहास का निर्माण हो पाएगा।
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