Hindi : भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य | DU SOL B.A Prog./Hons 1st to 4th Semester Notes

May 21, 2025
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Hindi : भारतीय भक्ति परंपरा और मानव मूल्य | DU SOL B.A Prog./Hons 1st to 4th Semester Notes

उत्तर -

परिचय

भक्ति काल हिन्दी साहित्य के गौरवशाली युगों में से एक माना जाता है। इस काल में भक्ति का चतुर्मुखी विकास हुआ और इसका वैदिक काल से लेकर भक्ति काल तक विस्तार हुआ। यह काल मुख्यत: 1375 से 1700 संवत तक माना जाता है। इस काल में संतों और कवियों ने भगवान की सेवा, ईश्वर के प्रति प्रेम और आध्यात्मिक साधना को विशेष महत्व दिया। 

भक्ति का अर्थ और अवधारणा

भक्ति संस्कृत शब्द "भज" से उत्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है "प्रेम", "सेवा", "स्मरण", या "पूजा करना"। भक्ति एक धार्मिक भावना और आस्था का रूप है, जिसमें व्यक्ति अपने ईश्वर के प्रति पूर्ण प्रेम, समर्पण और विश्वास दिखाता है।

  • विद्वानों ने भगवान की सेवा को, ईश्वर के प्रति प्रेम और अनुराग को भक्ति कहा है।
  • आचार्य शुक्ल ने श्रद्धा और प्रेम को भक्ति की संज्ञा दी है।
  • गोस्वामी तुलसीदास 'राम की प्रीति' को भक्ति कहते हैं।

सरल शब्दों में - भक्त यदि ईश्वर से प्रेम करता है, ईश्वर के प्रति लगाव रखता है, उसके प्रति झुकाव रखता है, उसकी ओर उन्मुख होता है तो यही भक्ति है।

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भक्ति की परिभाषा से संबंधित प्राचीन ग्रंथ :

'नारदभक्ति सूत्र' ग्रंथ के अनुसार - 'सा त्वस्मिन् परम प्रेमरूपा भक्ति' दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि ईश्वर के प्रति परम प्रेम रखना भक्ति है।

ब्रह्मर्षि शांडिल्य (ग्रंथ) भक्ति सूत्र के अनुसार - 'सा परानुरक्तिरीश्वरे भक्ति' अर्थात् भगवान के प्रति व्यक्त की गई परम अनुरक्ति (लगाव) ही भक्ति है। इसका मतलब यह है कि भक्त का भगवान के प्रति सच्चा प्रेम होना चाहिए। जो भक्त भगवान से सच्चे दिल से जुड़ा होगा, वही भगवान की कृपा पा सकेगा और ईश्वर के पास पहुंच सकेगा।

आचार्य गोस्वामी के 'भक्ति रसामृतसिंधु' ग्रंथ के अनुसार - "आनुकूल्येन कृष्णानुशीलन भक्तिरूतमा" कहने का तात्पर्य यह है कि अनुकूलता के साथ कृष्ण का चिंतन भक्ति है।

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भक्ति का रूप :

  • भक्ति के क्षेत्र में “नवधा भक्ति” का बड़ा महत्त्व बताया गया है। इसके अन्तर्गत भक्ति के नौ प्रकारों का वर्णन किया गया है। भक्ति के नौ प्रकारों में श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य, आत्मनिवेदन शामिल हैं। भक्त कवि सूरदास, तुलसी, कबीर आदि ने भक्ति के इन प्रकारों का सुंदर वर्णन किया है।

भक्ति का भाव :

भक्ति के प्रसिद्ध ग्रंथ 'हरिभक्ति रसामृतसिंधु' ग्रंथ में भक्ति के पाँच विशिष्ट भाव है :

1) शांत भाव : ईश्वर के प्रति शांत एवं शांतिपूर्ण प्रेम।

2) दास्य भाव : एक नौकर का अपने स्वामी के प्रति रवैया।

3) सख्य भाव : भक्त और भगवान के बीच मित्रता।

4) वात्सल्य भाव : भगवान के प्रति माता-पिता का प्रेम।

5) श्रृंगार भाव  : एक स्त्री और उसके प्रेमी के बीच का प्रेम, जिसमें गहरी व्यक्तिगत भक्ति निहित होती है।

  • सूरदास जैसे कवियों ने इन सभी भावों का वर्णन अपने काव्य में किया है। उन्होंने गोपियों के साथ कृष्ण की लीलाओं में श्रृंगार, कृष्ण के बाल वर्णन में वात्सल्य, विनय के पदों में दास्य, ग्वाल-बाल के प्रसंगों में सख्य और सांसारिकता से विरक्ति में शांत भाव की भक्ति को व्यक्त किया है।

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भक्ति के प्रमुख संप्रदाय

भक्ति का जन्म दक्षिण में जाना जाता है। दक्षिण से ही भक्ति की धारा उत्तर भारत की तरफ आई। भक्ति की इस विकास यात्रा में बहुत सी रुकावटें आई पर भक्ति के विभिन्न वैष्णव संप्रदाय के आचार्यों ने तथा विभिन्न सिद्धांतों की प्रतिष्ठा करने वाले आचार्यों ने भक्ति के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। भक्ति के माध्यम से ईश्वर, जीव, जगत, माया और मोक्ष जैसे सिद्धांतों को भक्ति के दार्शनिक सामने रख कर भक्ति के सिद्धांतों की सरल व्याख्या की।

1. राधावल्लभ संप्रदाय :

राधावल्लभ संप्रदाय एक वैष्णव हिंदू भक्ति सम्प्रदाय है। इस संप्रदाय के प्रचारक हरिवंश हैं जो राधा कृष्ण के युगल उपासक हैं। इसमें कृष्ण की तुलना में राधा को अधिक महत्त्व दिया है। इनके अनुसार, कृष्ण में सभी शक्तियाँ समाहित हैं। राधा, कृष्ण की शक्ति हैं और उनका संबंध चित (सजगता) और अचित (निराकार) ऊर्जा से है। भगवान कृष्ण का ऐसा वर्णन है कि जिसमें भगवान कृष्ण गोप-गोपियों के साथ लीलारत रहते हैं। वे राधा के पति हैं और उनके श्रृंगार की शोभा बढ़ाने वाले हैं। इस संप्रदाय के भक्तों ने राधा वल्लभ के नाम से राधा कृष्ण की उपासना की है।

2. निम्बार्क संप्रदाय :

कृष्ण भक्ति के अंतर्गत निम्बार्क संप्रदाय की भी चर्चा होती रही है। इस संप्रदाय के अंतर्गत राधा-कृष्ण के वामांग मे विराजमान रहती है और भक्त भगवान के इस रूप की उपासना करते है। इनका मानना है कि भगवान कृष्ण भक्तों पर कृपा करने के लिए अवतार लेते है। इतना ही नहीं स्वयं शिव और परब्रह्म कृष्ण की इस रूप की उपासना करते है। भक्त दैन्य भाव से भगवान की उपासना करते है और फिर प्रेम भक्ति के माध्यम से जीवन को अमरत्व प्रदान करते है।  

3. सखी संप्रदाय :

सखी संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी हरीदास जी है। इनके अनुसार, भगवान कृष्ण सबसे ऊपर है और उनकी लीलाएं विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। सखी संप्रदाय के भक्तों का मानना है कि भगवान कृष्ण सृष्टि के दुष्कर्मों पर ध्यान ना देते हुए अपने शृंगारिक लीलाओ में व्यस्त रहते है, उनको साज-सज्ज बहुत पसंद है और भक्तों के लिए उनके इस रूप के दर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण है ।  

4. वल्लभ संप्रदाय :

वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी वल्लभाचार्य है। इन्होंने कृष्ण के बाल रूप का वर्णन करते हुए उनकी सेवा को अधिक महत्व दिया है, जिसमें उन्होंने श्री कृष्ण की पूजा के आठ चरण बताए है - मंगलाचरण, शृंगार, ग्वाल, राजयोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती और शयन आरती। क्योंकि उनके अनुसार श्री कृष्ण पूर्ण ब्रह्म और परब्रह्म है, जो आनंद और शक्ति के स्रोत माने जाते है। उनकी नृत्य लीलाएं ही उनकी वास्तविक पहचान है।

निष्कर्ष

भक्ति ने भारतीय समाज में आध्यात्मिक, सामाजिक एकता, और सांस्कृतिक रूप से लोगों के मन में एक नई छवि बनाई और जाति-पांति, धार्मिक भेदभाव और सामाजिक असमानताओं को दूर किया। ईश्वर के प्रति प्रेम, समर्पण और श्रद्धा का संदेश दिया ताकि जीवन के सत्य से लोग अवगत हो सके।

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