IGNOU MPSE - 004 आधुनिक भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक विचार Notes Hindi Medium

Aug 31, 2025
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IGNOU MPSE - 004 आधुनिक भारत में सामाजिक एवं राजनीतिक विचार Notes Hindi Medium

प्रश्न 1 - प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत में राज्य और संप्रभुता के स्वरू प का वर्णन कीजिए।

उत्तर -

परिचय

भारत का इतिहास राज्यों और साम्राज्यों की रंगीन कहानियों से भरा है। प्राचीन भारत में शासन व्यवस्था जनपदों से शुरू होकर मौर्य और गुप्त जैसे विशाल साम्राज्यों तक पहुँची, जहाँ राजा धर्म, न्याय और प्रजा की रक्षा का दायित्व निभाता था। मध्यकालीन भारत में दिल्ली सल्तनत और मुगल शासन के दौरान सत्ता अधिक केंद्रीकृत हो गई, और शासक सर्वसत्ता के प्रतीक बने। मनुस्मृति, अर्थशास्त्र और तिरुक्कुराल जैसे प्राचीन ग्रंथों से लेकर फतवा-ए-जहांदारी और आइने अकबरी जैसे मध्यकालीन ग्रंथों ने राज्य, शासन और संप्रभुता की अवधारणा को अलग-अलग नजरिए से समझाया है।

प्राचीन और मध्यकालीन भारत की ऐतिहासिक समझ :

प्राचीन और मध्यकालीन भारत सम्पूर्ण भारतीय इतिहास के दो महत्वपूर्ण कालखंड हैं। इन दोनों कालों में भारत में अनेक साम्राज्य, राज्य, राजवंश और शासक उभरे। प्राचीन भारत मानव के उदय से लेकर 1200 ईस्वी तक भारत के इतिहास को संदर्भित करता है, जबकि मध्यकालीन भारत 1200 ईस्वी से 1857 ईस्वी तक चलता है, जब भारत में ब्रिटिश शासन की औपचारिक शुरुआत हुई।

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प्राचीन भारत में राज्य और संप्रभुता का स्वरूप :

1. सामाजिक संरचना से राज्य का उदय

प्राचीन भारत में राज्य की अवधारणा सामाजिक और आर्थिक परिवर्तनों के साथ विकसित हुई। भारतीय इतिहासकार 'रोमिला थापर' के अनुसार, प्रारंभिक समाज वंशपरंपरा (lineage society) पर आधारित था, जिसमें सबसे वरिष्ठ सदस्य द्वारा नियंत्रण होता था। जब जनसंख्या बढ़ी और लोग पशुपालन छोड़कर खेती करने लगे, तब समाज में असमानता बढ़ने लगी, जिससे एक मजबूत शासन की जरूरत महसूस हुई।

महाभारत के शांति पर्व में वर्णित मत्स्यन्याय (जहां बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है) ने यह दर्शाया कि शासन की अनुपस्थिति में समाज में अव्यवस्था फैलती है। इस स्थिति से बचने के लिए लोग एक शासक चुनने या ईश्वर से राजा की मांग करने पर सहमत हुए। यह विचार राजा की देवी उत्पत्ति (Divine Origin of Kingship) और सामाजिक संविदा सिद्धांत (Social Contract | Theory) का आधार बना।

2. राज्य के सात अंग (सप्तांग सिद्धांत)

  1. स्वामी (राजा): राज्य का मुखिया, जो शासन का केंद्र होता था।
  2. अमात्य (मंत्री): राजा को सलाह देने और शासन में सहायता करने वाली मंत्रिपरिषद ।
  3. जनपद (क्षेत्र): वह भू-भाग जिसमें कृषि भूमि, खान और वन शामिल थे।
  4. दुर्ग (किला): राजधानी की रक्षा के लिए किलेबंदी।
  5. कोष (खजाना): राजस्व संग्रह का स्थान।
  6. दंड (सेना): कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए सैन्य शक्ति।
  7. मित्र (मित्र देश): बाहरी सहायता और गठबंधन के लिए मित्र राष्ट्र।

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3. मनुस्मृति में धर्म आधारित शासन:

मनुस्मृति  में राजा को दैवी शक्ति प्राप्त बताया गया, परंतु उसका कर्तव्य धर्म, न्याय और व्यवस्था की स्थापना करना था। मनु के अनुसार राजा को ब्राह्मणों की सलाह से शासन करना था और समाज के चार वणो में संतुलन बनाए रखना था। जिसके अंतर्गत विकेंद्रीकृत प्रशासन, न्याय प्रणाली और लोक कल्याण पर विशेष बल दिया जाना चाहिए था।

4. कौटिल्य का अर्थशास्त्र:

कौटिल्य ने शक्तिशाली परंतु नैतिक और विवेकशील शासन की बात की। अर्थशास्त्र में गुप्तचर व्यवस्था, कर नीति, सैन्य संगठन, दंड व्यवस्था और मंत्रिमंडल की भूमिका पर विस्तार से चर्चा की गई है। उनका कथन, "प्रजा की खुशी में ही राजा की खुशी है," कल्याणकारी राज्य की आधारशिला बनाता है।

5. बौद्ध, जैन परंपराएँ और तिरुक्कुराल में सुशासन:

बौद्ध धर्म में राजा को धम्मराजा के रूप में आदर्श बताया गया, जो सत्य और अहिंसा के आधार पर शासन करता है। जैन परंपरा में भी नैतिकता और अहिंसा प्रधान शासन का समर्थन मिलता है। तिरुक्कुराल (एक प्राचीन तमिल ग्रंथ) जैसे ग्रंथों में सेना, संसाधन, कूटनीति और योग्य मंत्रियों को सुशासन के लिए आवश्यक बताया गया है।

           

मध्यकालीन भारत में राज्य और संप्रभुता का स्वरूप :

1. इस्लामी शासन का आगमन -

मध्यकाल के प्रारंभ में दिल्ली सल्तनत और बाद में मुगलों का शासन स्थापित हुआ, जिससे शासन की सोच और व्यवस्था में बदलाव आया। इस काल में राज्य और संप्रभुता की अवधारणा कुरान और शरिया पर आधारित थी, जिन्हें ईश्वरीय नियम माना जाता था। राजा को खुदा का प्रतिनिधि समझा जाता था, और 'जिल्ल-ए-इलाही' (ईश्वर की छाया) कहा जाता था, इनका मुख्य कर्तव्य शरियत के अनुसार शासन करना था। यह प्रणाली प्राचीन भारतीय परंपराओं से अलग थी, जहाँ शासन विभिन्न धर्मों और सामाजिक नियमों से प्रभावित होता था।

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2. फतवा-ए-जहांदारी और जियाउद्दीन बरनी के विचार -

जियाउद्दीन बरनी दिल्ली सल्तनत के एक प्रसिद्ध इस्लामी विचारक थे। उन्होंने फतवा-ए-जहांदारी नामक ग्रंथ लिखा जिसमें उन्होंने बादशाह को ईश्वर की ओर से चुना गया बताया। उनके अनुसार बादशाह का काम शरीयत कानून लागू करना और जनता को इंसाफ देना था। उन्होंने अपनी अन्य प्रसिद्ध रचना तारीख-ए-फ़िरोज़शाही" में चार धार्मिक कानूनों का जिक्र किया - कुरान, हदीस, इजमा और कियास इसके साथ ही ज़वाबित' यानी सरकारी नियम को भी शरीयत के साथ समान रूप से जरूरी माना। बरनी कुलीन वर्ग (ऊँचे खानदान वालो) का पक्ष लेते थे और सामान्य लोगों को उच्च पद देने के खिलाफ थे। वे मानते थे कि राजा को समझदार सलाहकारों की मदद से शासन करना चाहिए और सेना तथा प्रशासन को मज़बूत बनाना चाहिए।

3. आइन-ए-अकबरी और अबुल फज़ल के विचार

अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में मुगल शासन की विचारधारा को बताया। उन्होंने बादशाह को दैवी शक्ति से युक्त माना, लेकिन उसका मुख्य कर्तव्य जनकल्याण बताया। उनके अनुसार बादशाह को किसी धार्मिक नेता की आवश्यकता नहीं थी, वह खुद न्याय और नीति की समझ रखता था। अबुल फज़ल ने केंद्र में मजबूत शासन और अच्छी नौकरशाही का समर्थन किया। उन्होंने समाज को चार वर्गों में बाँटा शासक, विद्वान, कारीगर और श्रमिक। उनके विचारों में सभी धर्मों के लिए बराबरी और जनता की भलाई की भावना थी। ये बातें अकबर की नीतियों जैसे जजिया कर हटाना और गाय की हत्या पर रोक में भी दिखती हैं।



निष्कर्ष

प्राचीन और मध्यकालीन भारत में राज्य की संकल्पना सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक परिवर्तनों के साथ क्रमशः विकसित होती रही। जहाँ प्राचीन काल में धर्म, नैतिकता और जनकल्याण पर आधारित शासन को महत्व दिया गया, वहीं मध्यकाल में धार्मिक अधिपत्य, शरियत आधारित नियम और केंद्रीकृत सत्ता प्रणाली प्रमुख हो गई। हालाँकि, स्वरूपों में भिन्नता थी, लेकिन दोनों ही कालों में राज्य का मूल उद्देश्य सामाजिक व्यवस्था बनाना और जनहित की रक्षा करना था।

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