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प्रश्न 1 - भारत में राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए साम्राज्यवादी उपागमों (दृष्टिकोण) का विश्लेषण करे।
अथवा
भारत में राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए राष्ट्रवादी दृष्टिकोण का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए।
उत्तर -
परिचय
भारत में राष्ट्रवाद का उदय 19वीं-20वीं सदी में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हुआ। यह केवल एक राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि जनता पर हो रहे शोषण के खिलाफ एक जागरूकता थी। राष्ट्रवाद ने भारतीय समाज को एकजुट करने, सामाजिक सुधार को प्रेरित करने और विदेशी शासन के खिलाफ आवाज़ उठाने का मार्ग दिखाया। आगे चलकर, राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए कई दृष्टिकोण विकसित हुए, जिनमें साम्राज्यवादी दृष्टिकोण और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण प्रमुख थे।
राष्ट्रवाद का अर्थ: किसी राष्ट्र के लोगों में अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता, एकता, और आत्मनिर्भरता के लिए संगठित होकर संघर्ष करने की भावना। भारत में यह भावना ब्रिटिश शासन के शोषण के विरुद्ध विकसित हुई और स्वतंत्रता आंदोलन का आधार बनी।
भारत में राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए साम्राज्यवादी उपागम / दृष्टिकोण :
साम्राज्यवादी उपागम ब्रिटिश इतिहासकारों और शासकों का दृष्टिकोण है, जो राष्ट्रवाद को ब्रिटिश शासन की देन मानता है। उनके अनुसार, भारत में राष्ट्रवाद पश्चिमी शिक्षा और ब्रिटिश सुधारों का परिणाम था, न कि भारतीयों की अपनी चेतना का। यह उपागम भारत को एक अराष्ट्र बताता है, जो ब्रिटिशों के कारण एकजुट हुआ।
1. भारत को अराष्ट्र मानना साम्राज्यवादी इतिहासकारों जैसे जेम्स मिल और जॉन स्ट्रेची का कहना था कि, 18वीं सदी से पहले भारत कोई राष्ट्र नहीं था, बल्कि यह अलग-अलग जातियों, भाषाओं, धर्मों और क्षेत्रों का समूह था। ब्रिटिश शासन ने एक समान प्रशासन, कानून व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली और संचार साधन, देकर भारत को राजनीतिक और भौगोलिक रूप से एक राष्ट्र का रूप दिया।
2. राष्ट्रवाद को अभिजन वर्ग तक सीमित बताना साम्राज्यवादी विचारधारा के अनुसार, राष्ट्रवादी आंदोलन केवल पढ़े-लिखे और अंग्रेज़ी शिक्षित मध्यम वर्ग तक सीमित था। लॉर्ड डफरिन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को "मुट्ठीभर बुद्धिजीवियों" का संगठन बताया, जो आम जनता की समस्याओं और भावनाओं से दूर था।
3. 1857 के विद्रोह को कमतर दिखाना इस दृष्टिकोण में 1857 की क्रांति को "सिपाही विद्रोह" कहकर केवल सैनिकों की असंतुष्टि का परिणाम बताया गया। उन्होंने इसे संगठित राष्ट्रीय आंदोलन मानने से इनकार किया और इसकी राष्ट्रीय भावना को पूरी तरह नकार दिया।
4. राष्ट्रवादी नेताओं और आंदोलनों का नकारात्मक चित्रण साम्राज्यवादी इतिहासकारों ने बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं को "उत्तेजक" और गांधीजी की नीतियों को कमजोर बताया। उनका दावा था कि ऐसे नेता ब्रिटिश सुधारों का गलत उपयोग कर रहे हैं और उनकी गतिविधियाँ अव्यवहारिक तथा समाज में अस्थिरता पैदा करने वाली थीं।
अंतत, साम्राज्यवादी उपागम (दृष्टिकोण) राष्ट्रवाद को पूरी तरह ब्रिटिश शासन की देन मानता है, लेकिन यह दृष्टिकोण पक्षपाती है। क्योंकि यह भारतीय समाज की अपनी राजनीतिक चेतना और स्वतंत्रता की चाह को नज़रअंदाज़ करता है।
भारत में राष्ट्रवाद के अध्ययन के लिए राष्ट्रवादी दृष्टिकोण :
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण भारतीय इतिहासकारों और नेताओं का दृष्टिकोण है, जो भारत में राष्ट्रवाद भारतीयों की अपनी सोच और आज़ादी की चाह से पैदा हुआ मानता है। उनके अनुसार, भारत में राष्ट्रवाद विदेशी शासन के शोषण, अन्याय और दमन के खिलाफ स्वाभाविक रूप से विकसित हुआ, न कि ब्रिटिश सुधारों से।
1. प्राचीन भारत में एकता पर जोर - राष्ट्रवादी इतिहासकारों जैसे आर.सी. मजूमदार और के.पी. जयसवाल ने तर्क दिया कि भारत में राष्ट्रीय भावना सांस्कृतिक और राजनीतिक परंपराओं में थीं। वे मानते हैं कि भारतीयों में स्वतंत्रता की भावना, एकता और आत्मनिर्भरता की सोच ब्रिटिश शासन से पहले भी मौजूद थी, जिसे अंग्रेज़ी दमन ने और मजबूत किया।
2. ब्रिटिश शासन के शोषण पर ध्यान- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ब्रिटिश शासन को उपकारी नहीं, बल्कि शोषणकारी मानता है। इसके अनुसार, अंग्रेज़ों ने भारत की आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को कमजोर किया। कृषि संकट, गरीबी, और औद्योगिक पतन ने जनता में असंतोष पैदा किया, जो अंततः राष्ट्रवादी आंदोलन का आधार बना।
3. स्वतंत्रता संग्राम को जन-आंदोलन के रूप में देखना- इस दृष्टिकोण में 1857 की क्रांति को सिर्फ "सिपाही विद्रोह" नहीं, बल्कि पहला संगठित राष्ट्रीय आंदोलन माना गया है। इसमें किसान, सैनिक, शिल्पकार और आम जनता सभी की भागीदारी थी। राष्ट्रवादी इतिहासकार इसे भारत के स्वतंत्रता संघर्ष की शुरुआत मानते हैं।
4. नेताओं और आंदोलनों की सकारात्मक भूमिका- राष्ट्रवादी दृष्टिकोण महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं की भूमिका को निर्णायक मानता है। उनके नेतृत्व में आंदोलन जन-आधारित हुए, जिसमें सत्याग्रह, असहयोग, स्वदेशी और सशस्त्र क्रांति सभी का योगदान रहा।
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की आलोचना
राष्ट्रवादी दृष्टिकोण ने भारतीयों में गर्व और देशभक्ति की भावना बढ़ाई। इसने दिखाया कि भारत की अपनी पुरानी एकता, संस्कृति और स्वतंत्रता की चाह कितनी मजबूत थी। हालांकि, इसमें कुछ कमियाँ भी थीं। कई बार यह दृष्टिकोण अत्यधिक भावनात्मक हो गया और ब्रिटिश शासन के कुछ सकारात्मक प्रशासनिक और तकनीकी योगदान को नज़रअंदाज कर दिया। प्राचीन भारत की एकता और राष्ट्रीय भावना को कभी-कभी बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया, जबकि समाज में जाति, धर्म और भाषा के अंतर भी थे। 1857 को पूरी तरह पहला स्वतंत्रता संग्राम मानना भी सभी इतिहासकारों की राय नहीं है। साथ ही, किसानों, मजदूरों और आम जनता की भूमिका को उत्तना महत्व नहीं दिया गया। इसलिए यह दृष्टिकोण प्रेरणादायक था, लेकिन पूरी तरह संतुलित नहीं।
निष्कर्ष
इस प्रकार कहा जा सकता है, दोनों दृष्टिकोण भारत में राष्ट्रवाद के उदय को अलग-अलग तरह से देखते हैं। साम्राज्यवादी दृष्टिकोण राष्ट्रवाद को ब्रिटिश शासन की देन मानता है, जबकि राष्ट्रवादी दृष्टिकोण इसे भारतीय समाज की अपनी शक्ति और चेतना का परिणाम बताता है। सच यह है कि भारत का राष्ट्रवाद इन दोनों दृष्टिकोणों के मेल से बना, विदेशी शासन की चुनौतियों ने तथा आंतरिक एकता व आत्मसम्मान ने मिलकर इसे आज़ादी के राष्ट्रवादी आंदोलन में बदल दिया।
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