प्रश्न 1- हिंदी की आरंभिक संस्थाओं का परिचय देते हुए उनके योगदान पर प्रकाश डालिए।

May 23, 2025
1 Min Read
प्रश्न 1- हिंदी की आरंभिक संस्थाओं का परिचय देते हुए उनके योगदान पर प्रकाश डालिए।

उत्तर- परिचय

औपनिवेशिक भारत में अंग्रेजों ने फोर्ट विलियम कॉलेज के माध्यम से भाषा, साहित्य, दर्शन और ज्ञान की शिक्षा शुरू की। इससे प्रेरित होकर भारतीय बुद्धिजीवियों ने राष्ट्र निर्माण और हिंदी भाषा के प्रचार के लिए कई संगठनों और संस्थानों का निर्माण किया। इनका प्रमुख उद्देश्य भारत की प्राचीन साहित्यिक परंपरा और इतिहास से जनता को परिचित कराना और शिक्षा देना था।

हिंदी की आरंभिक संस्थाएँ

1. नागरी प्रचारिणी सभा, काशी

नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना क्वींस कॉलेज (बनारस) के तीन छात्रों श्यामसुंदर दास, रामनारायण मिश्र, शिवकुमार सिंह ने 16 जुलाई, 1893 ई. में की। इसके पहले अध्यक्ष बाबू राधाकृष्ण दास थे, जिनकी अध्यक्षता में 30 सितंबर, 1894 में सभा का पहला अधिवेशन कारमाइकेल पुस्तकालय (बनारस) में हुआ।

नागरी प्रचारिणी सभा का उद्देश्य : इसका मुख्य उद्देश्य साहित्य और भाषा को बढ़ावा देना, पांडुलिपियों की खोज, संग्रह और प्रकाशन करना व अदालतों में नागरी लिपि (देवनागरी) को लागू करवाना था। उस समय में सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों में अंग्रेजी और फारसी का वर्चस्व था, जिन्हें आम लोग न तो बोल पाते थे और न ही समझ पाते थे। इस वजह से जनता को काफी परेशानी होती थी।

  • नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना से पहले हिंदी का कोई प्रामाणिक शब्दकोश या व्याकरण नहीं था। महावीर प्रसाद द्विवेदी, लज्जा शंकर झा, श्यामसुंदर दास और चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' के प्रयासों से हिंदी का व्याकरण तैयार किया गया। इस सभा का मुख्य उद्देश्य व्याकरण, शब्दकोश और पारिभाषिक शब्दावली बनाना था।

कार्य एवं उपलब्धियाँ

1. काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 1900 से हस्तलिखित हिंदी पांडुलिपियों की खोज और संरक्षण का कार्य शुरू किया। 1911 तक आठ रिपोर्टों में सैकड़ों ज्ञात-अज्ञात कवियों के ग्रंथों का पता लगाया। उस समय जितने भी इतिहासकारों ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा, उनमें मिश्रबंधु, रामचंद्र शुक्ल आदि ने साहित्य सामग्री को प्रकाशित कराने का कार्य किया। इस सामग्री का उपयोग कर मिश्रबंधुओं ने 1913 में "मिश्रबंधु विनोद" नामक कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया।

2. नागरी प्रचारिणी सभा ने पाठकों के लिए पुस्तकें उपलब्ध कराने और साहित्य में रुचि बढ़ाने के लिए कुछ पुस्तकालय स्थापित किए। इनमें हिंदी का सबसे बड़ा पुस्तकालय 'आर्यभाषा पुस्तकालय' 1896 में बनाया गया। साथ ही, 1896 में नागरी प्रचारिणी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ, जिसमें ऐतिहासिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और साहित्यिक विषयों पर लेख छपते थे।

3. सन् 1897 में सभा ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका (त्रैमासिक) का प्रकाशन शुरू किया। यह पत्रिका एक प्रसिद्ध साहित्यिक शोध पत्रिका थी, जिससे कई अज्ञात कवि, लेखक और ग्रंथ सामने आए। हिंदी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती की नींव भी इसी सभा ने रखी।

4. इस सभा ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए अहिंदी भाषी छात्रों को हिंदी पढ़ने हेतु छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रावधान किया था। साथ ही, हिंदी साहित्यकारों को प्रोत्साहन देने के लिए कई तरह के पुरस्कार देने की व्यवस्था भी की थी।

2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयागराज

हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयागराज की स्थापना 3 मई 1910 को नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा की गई। इसका पहला अधिवेशन 10 अक्टूबर 1910 को पंडित मदन मोहन मालवीय की अध्यक्षता में हुआ। 1911 में दूसरा अधिवेशन प्रयागराज में पंडित गोविंद नारायण मिश्र की अध्यक्षता में संपन्न हुआ। इसके बाद यह एक स्वतंत्र संस्था के रूप में प्रयागराज में स्थापित हो गया।

हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयागराज का उद्देश्य : इस संस्था की स्थापना के समय हिंदी-उर्दू विवाद चरम पर था। इसने देवनागरी लिपि और हिंदी का समर्थन किया तथा अदालतों, डाकखानों व कार्यालयों आदि में देवनागरी लिपि और हिंदी भाषा के उपयोग के लिए संघर्ष किया।

  • पं. मदन मोहन मालवीय, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन और महात्मा गांधी इस संस्था से जुड़े प्रमुख व्यक्तित्व थे। गांधी हिंदी-उर्दू मिश्रित भाषा "हिंदुस्तानी" के पक्षधर थे, जबकि टंडन उर्दू रहित, संस्कृतनिष्ठ हिंदी को बढ़ावा देना चाहते थे। प्रयाग सम्मेलन के बाद संस्था की बागडोर टंडन के हाथ में आई और उनके जीवनभर वे इसके प्रधान मंत्री रहे। टंडन ने हिंदी के पक्ष को सशक्त करने के लिए कांग्रेस में भी सक्रिय भूमिका निभाई और इन्हें हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्राण कहा जाता था।

कार्य एवं उपलब्धियाँ

1. आजादी से पहले हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने में महात्मा गांधी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1918 में इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में गांधीजी को सभापति बनाया गया। उन्होंने दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए आर्थिक सहायता का प्रस्ताव रखा, जिससे मद्रास में 'हिंदी प्रचार सभा' की स्थापना हुई। इस तरह साहित्य सम्मेलन ने हिंदी आंदोलन को बढ़ावा दिया और विभिन्न राज्यों में इसके प्रचार के लिए अधिवेशन आयोजित किए।

2. यह युवाओं को हिंदी भाषा और साहित्य की शिक्षा देने के लिए पाठ्य पुस्तकों का निर्माण, प्रकाशन और उनकी शिक्षा देने का भी कार्य करती थी। साथ ही प्रथमा, मध्यमा और उत्तमा की उपाधियाँ प्रदान करती थी।

3. साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने के लिए उनकी पुस्तकों को छापने के साथ-साथ साहित्य के पाठकों का निर्माण और विभिन्न पुरस्कार प्रदान किए जाते थे। इनमें 'मंगला प्रसाद पारितोषिक' प्रमुख था। यह पुरस्कार द्विवेदी युग के कवि अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' को उनकी कृति 'प्रियप्रवास' के लिए दिया गया था।

3. दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास

महात्मा गांधी ने 31 मार्च 1918 को इंदौर में हिंदी साहित्य सम्मेलन के आठवें त्रिदिवसीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी दौरान, 'अखिल कर्नाटक हिंदी प्रचार सम्मेलन' हुआ, जिसमें दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के लिए एक नई संस्था बनाने का निर्णय लिया गया। इस संस्था का नाम 'दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा' रखा गया। इसकी पहली बैठक बैंगलोर में आयोजित की गई।

दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मद्रास का उद्देश्य : इसका उद्देश्य दक्षिण भारत के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार-प्रसार करना था। महात्मा गांधी का यह मानना था कि भारत की सामान्य बोलचाल की भाषा हिंदुस्तानी है और उसमें राष्ट्रभाषा बनने की पूरी क्षमता है।

कार्य एवं उपलब्धियाँ

  1. यह संस्था हर साल एक या दो बार राष्ट्रीय संगोष्ठियों (सेमिनार) और कवि सम्मेलनों का आयोजन करती थी। साथ ही, ज्ञान, विज्ञान, दर्शन और साहित्य की अन्य भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी कराती थी।
  2. राष्ट्रभाषा हिंदी की शिक्षा के लिए प्राथमिक और उच्च स्तर पर व्यवस्था की गई और इसके लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार की गईं। 12 मई 1964 को दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा को राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था माना गया। उस समय जब लोग स्त्री शिक्षा को अलग से जरूरी नहीं मानते थे, तब इस संस्था ने हिंदी के द्वारा स्त्रियों को शिक्षित करने का काम किया।
  3. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने स्वतंत्रता से पहले अनेक स्थलों पर स्कूल-कॉलेज और विश्वविद्यालयों में हिंदी राष्ट्रभाषा पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था की। इसने उच्च शिक्षा और संस्थानों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आजादी के बाद भी जारी है। यह संस्था राष्ट्रीय भावना से प्रेरित थी और लाखों लोग इससे जुड़कर देश सेवा में योगदान देने लगे।

4. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा

1936 में नागपुर में महात्मा गांधी की प्रेरणा से राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हुई। शुरुआत में इसे "हिंदी प्रचार समिति" कहा जाता था, लेकिन 6 अगस्त 1938 को इसका नाम बदलकर "राष्ट्रभाषा प्रचार समिति" रखा गया। इसका मुख्य केंद्र वर्धा (महाराष्ट्र) में है। इस संस्था के सुझाव पर 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है।

उद्देश्य : यह एक स्वतंत्र संस्था है और इसका मुख्य लक्ष्य पूरे विश्व में हिंदी का प्रचार करना है। साथ ही, देश में यह समिति राष्ट्रभाषा और इसे बोलने वालों के बीच घनिष्ठ संबंध बढ़ाने और देशभक्ति की भावना मजबूत करने का काम करती है।

  • यह समिति गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, मध्यप्रदेश, असम, मिजोरम, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार सहित भारत के विभिन्न राज्यों में कार्यरत है। इसके अलावा, यह अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी, थाइलैंड, जापान, म्यांमार और अन्य देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु सक्रिय है।

कार्य एवं उपलब्धियाँ

  1. इस समिति ने 1937 में 'राष्ट्रभाषा पुस्तकालय' की स्थापना की ताकि छात्रों, शिक्षकों, बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों की जरूरतों को पूरा किया जा सके। इसके बाद, राष्ट्रभाषा के प्रचार और विकास के लिए जुलाई 1943 में 'राष्ट्रभाषा' नामक दैनिक पत्रिका की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य राष्ट्रभाषा के प्रचार और उसकी प्रगति को बढ़ावा देना था।
  2. राष्ट्रभाषा हिंदी का प्रचार करने के लिए समिति ने हिंदी को सरल और व्यावहारिक बनाने पर जोर दिया, ताकि अन्य भाषी लोग इसे आसानी से अपनाएं। इसके साथ ही, 'भारत-भारती' नामक तेरह भाषाओं की छोटी पुस्तकें प्रकाशित की गईं, जो देवनागरी लिपि में थीं, ताकि लोग सरल तरीके से किसी भी भाषा का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर सकें।

  3. राष्ट्र की प्रगति के लिए एक भाषा जरूरी है और हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में बढ़ावा देने के लिए बुद्धिजीवियों ने कई कदम उठाए। उन्होंने परीक्षाएं, पाठ्यपुस्तकें और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाली सामग्री प्रकाशित की। साथ ही भारतीय भाषाओं के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश की।
  4. हिंदी भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने के लिए समिति ने कई भाषाओं की किताबों का हिंदी में अनुवाद कराया, साथ ही कई महत्वपूर्ण किताबें लिखवाकर प्रकाशित भी कीं।

  5. महात्मा गाँधी के विचारों को साकार करने में इस संस्था का बड़ा योगदान है। इसने एक करोड़ 60 लाख से अधिक गैर-हिंदी भाषी लोगों को हिंदी में शिक्षित करने का कार्य किया। इसके अलावा, राष्ट्रभाषा को बढ़ावा देने के लिए अनेक देशों में विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन सन् 1975 में नागपुर में आयोजित किया गया था।

निष्कर्ष

हिंदी की इन संस्थाओं ने भाषा और साहित्यिक कृतियों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ ही, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने और देव नागरी लिपि को फैलाने में भी मदद की। इसके माध्यम से देशभर में राष्ट्रीय भावना, गौरव, एकता और नवचेतना का प्रचार हुआ।

Click Here For Full Notes

What do you think?

0 Response